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आत्म-विस्मृति से उबरने का प्रस्थान बिंदु

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सरयू के 'ब्रह्मद्रव' से पोषित पावन नगरी अयोध्या जी में वहां के शास्ता राम की जन्मभूमिमंदिर का पुनरुद्धार भारतीय समाज के लिये उत्सव मनाने का अपूर्व अवसर है, जिसका उसी रूप में सत्कार भी हुआ है। पांच सदियों की प्रतीक्षा, पीड़ा और उपेक्षा अब बीत चुकी है। सब ओर आनंद है, मंगल है। अयोध्या जी अपना स्वरूप पाकर प्रमुदित हैं और लोक अपने तप की सिद्धि का साक्षात कर। ऐसा महाभाव भारत ने शायद ही पहले देखा हो। श्रीरामजन्मभूमि मंदिर का पुनरुद्धार मात्र एक घटना नहीं है, प्रतिमान है। अलबत्ता, इसने हमें कई बिंदुओं पर विचार करने को प्रेरित किया और कई जागतिक रीतियों व सामाजिक दुर्बलताओं को समझने की प्रशस्त दृष्टि दी है। आक्रांत समाज दोहरी विपरीतताओं से गुजरता है। आक्रांता के प्रभाव व बल से कुछ उसके अनुगामी हो जाते हैं, कुछ उसका उसी के तरीके से प्रतिरोध करने के चलते पथच्युत हो जाते हैं। ऐसे समाज को पुनर्जागरण के लिए प्रोत्साहित करना बेहद दुरूह होता है। भारत ने यह त्रासदी अनेक बार झेली है। यही कारण है कि हमारी 'व्यथा की वीथियां' लंबी रही हैं। हम सदियों तक खंडहरों के रखवार बने रहे, वहीं ठहरे रहे

राम: समग्र के साथ स्वयं की महाभावमयी चेतना

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लोकाभिराम राम का चरित्र बहुआयामी है। भारतीय चिंतन में कोई एकांगी, एकमुखी चरित्र मर्यादा पुरुषोत्तम हो ही नहीं सकता। राम अनेकों संबंध-संवेगों की कसौटी तो हैं ही, संबंध-संवेगों का जो कुछ भी अनभिव्यक्त है, वह भी राम से प्रकाशित होता है। वह न्याय और धर्म का अधिष्ठान हैं, इसलिये अयोध्या के शास्ता हैं। इतिहास में राम नीतिमान राजा हैं, शास्त्रों में नाराणावतार। राम की लोक में व्याप्ति ब्रह्म के रूप में हैं, और वह लोक चेतना के पर्याय हैं, यहां शास्त्रीय स्वीकार्यताओं का नकार भी नहीं है। लोक के लिए राम राजा ही नहीं, आचार्य भी हैं। अनुशासन का दायित्व आचार्यों का ही होता है---इसी लिए लोक का संकल्प है, ‘जाही‘विधि’ राखें राम, ताही‘विधि’ रहिये।‘ लोक में बच्चा-बच्चा राम है।  राम लोक के हर मंगल, शुभ व शिव का पर्याय हैं लेकिन यह उनकी परिधि नहीं है। लोक के गीतों में विवाह के समय सजकर खड़ा हर दूल्हा ‘रामचंद्र’ का ही प्रतिरूप है, और वसंतोत्सव में होली भी रघुबीर ही खेलते हैं। जो लोग अवध प्रान्त के लोक-जीवन से परिचित होंगे, वह जानते होंगे कि आप किसी व्यक्ति को एक काम सौंपे, लेकिन उसे ऐसा नहीं करना है, तो अमु

जीने की राह: एकाकी चुनना सीखें

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हमारी सामाजिक संकल्पना का आधार परस्परता है। यह परस्परता मनुष्य केे लिए प्रिवेलज भी है, वहीं उसकी संभावनाओं का एक हद भी। परस्परता के क्रम में ही मनुष्य ने क्षेत्रीय, भाषाई व राष्ट्रीय परिभाषा व समूह से स्वयं को जोड़ा है। संबंधों व उसके पर्यायों से खुद को जोड़ा है। अभ्यास व प्रशिक्षण से मनुष्य ने स्वयं को इन पहचानों व पर्यायों के अनुरूप ढालने का प्रयास किया है। लेकिन, तब भी उसके भीतर एक स्वाभाविक द्वंद्व जारी रहा है। वहीं समाज के पर्याय व प्रतिमान भी बदले हैं, जोकि लंबे समय से चले आ रहे अभ्यास व प्रशिक्षण से भिन्न हैं।  इसलिए, सामाजिक व पारिवारिक ढांचे में हुए बदलाव की प्रतिक्रिया में मनुष्य के हिस्से जो एकाकी आई है वह उसके लिए किसी आपदा से कम नहीं है। लंबे समय से वह जिस अभ्यास में रह रहा है उस दृष्टि से देखने पर यह एक बड़ा संकट दिखाई देता है। मनुष्य अपने अभ्यास नहीं बदल पा रहा, न ही बदल रही हैं उसकी सामाजिक अपेक्षाएं।  दूसरी ओर इस थोपे हुए एकाकीपन से जूझना एक चुनौती बन गई है क्योंकि वर्षों का हमारा अभ्यास इसके विपरीत है। यहां हमारे अभ्यास और अपेक्षा के विपरीत यथार्थ का संघर्ष है। थोपी हु

जीने की राह: मनुष्य, इच्छा की सीमा से बहुत श्रेष्ठ है।

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मनुष्य में पूर्णता के दो पक्ष हैं, जिन्हें कुछ हद तक अलग करके देखा जा सकता है। ‘होने’ में पूर्णता और ‘करने’ में पूर्णता। यह कल्पना की जा सकती है कि प्रशिक्षण या प्रभाव से, ऐसे व्यक्ति से भी अच्छे काम कराये जा सकते हैं जो व्यक्तित्व के स्तर पर अच्छे नहीं है। यह भी देखा गया है कि घातक जोखिम वाली गतिविधियां अक्सर कायरों द्वारा की गई हैं, भले ही वे खतरे के प्रति सचेत रहे हों। ऐसे कार्य इसे करने वाले व्यक्ति के जीवनकाल के बाद भी मौजूद रह सकते हैं, और उपयोगी हो सकते हैं। बावजूद इसके इसे पूर्णता का पर्याय नहीं माना जा सकता।  जहां सवाल उपयोगिता का नहीं बल्कि नैतिक पूर्णता का है, हम यह महत्वपूर्ण मानते हैं कि व्यक्ति को अपनी अच्छाई को लेकर सच्चा होना चाहिए। उसका बाहरी अच्छा काम भले ही अच्छे परिणाम देता रहे, लेकिन उसके व्यक्तित्व की आंतरिक पूर्णता का अपना बहुत बड़ा मूल्य है, जो उसके लिए आध्यात्मिक स्वतंत्रता है और मानवता के लिए एक अनंत संपत्ति है, हालांकि हम इसे नहीं जानते होंगे। अच्छाई एक तरह से अहंकार से बचाव के भाव का ही व्यक्त रूप है यानी हमारे भीतर अहंकार को लेकर कितना दुराव है। अच्छाई में

वे आशीष जो मैंने चुने--- मेरी मां ने दोहराये।

मां, जैसे माटी की सतह पर माटी से बनी मेड़, जो 'सबको मिले' की कामना लिए स्वयं वंचित रह जाती है...प्यासी रह जाती है।  अलबत्ता, बहाव को साधने व सबको सुलभ कराने के प्रयास में प्रत्येक आवृत्ति में थोड़ी भीगती है तो अधिक छीजती है। घटती-कटती, अपनी स्थिति को साधती....लेकिन 'सबको मिले', 'सम्यक मिले' की भावना को जीती बनी रहती है...शीत, तुषार, पदाघात सहकर भी। मां मेड़ जैसी है, मेड़ नहीं। मां, संतान को सींचती है और संतान से सीखती भी है।  वस्तुस्थिति बताकर अम्मा का यह कहना कि अब तुम बता दो कि इस विषय में क्या करना चाहिए...उनकी अपने पोषण पर आश्वस्ति नहीं, तो और क्या है!  विपन्नता से जूझकर पली संतानों के लिए संपन्नता को अनुष्ठान करती मां....संतान की गति समझकर अपनी प्रार्थनाएं भी मोड़ लेती है।  एक रोचक बात याद आई, चित्रकार बनने के तमाम प्रयासों से असफल एक लड़का मेरे पास आया। उसने अपनी सारी बातें कहकर मुझसे मार्गदर्शन मांगा। मैंने उससे कहा कि अपनी मां से कहना कि अपना आशीष बदल लें। उनका आशीष तुम्हारी भावना को दूसरी दिशा में धकेलता है, यही द्वंद्व तुम्हें सिद्ध होने से रोकता है।  अम्मा

'मानस' को प्रज्ञा से जानो, प्रलाप से नहीं

कहने की आवश्यकता नहीं कि यह विद्वत्ता का आपद काल है। जहां विद्वत-विमर्श की प्रेरणा राजनीति से उठने लगी है। ऐसी परिस्थिति बनी है कि कुछ भी कहने को अब किसी मेरिट की आवश्यकता नहीं रही है। न ही ग्रंथों के अध्ययन, अनुशीलन व अभ्यास की आवश्यकता रही है। बल्कि, जिसके पास भीड़ है वह किसी भी विषय पर कुछ भी कह कर उसे मनवा सकता है। यह ऐसा वक्रजड़ युग है कि सीधी बातों को भी जब तक टेढ़ा करके ना कहा जाए उसे कोई समझने वाला नहीं। विद्वत विषयों पर नेताओं की सहज आपत्ति बताती है कि जिसने भी यह कहा है कि मूढ़ों में गजब का आत्मविश्वास होता है, उसने ठीक ही कहा है। हालांकि, इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि ग्रंथों व प्रशस्त मान बिंदुओं पर आपत्ति करने वाले अज्ञानी ही नहीं कुटिल कामना के स्वामी भी होते हैं। उन्हें अज्ञानी कहने का अर्थ यह नहीं है कि वे सत्य से अनभिज्ञ हैं। बल्कि वह क्षणिक पदार्थवादी प्राप्तियां के लिए सत्य का भी विरूपण करने का प्रयास कर रहे हैं, इसलिए अज्ञानी हैं।खैर, इन सब बातों का उन पर कोई असर होने वाला नहीं है। मैं ऐसी प्रकृति के लोगों को प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ न कहने का पक्षधर हूं। क्योंकि

कृष्ण 'होना' हैं, 'बनना' नहीं।

कृष्ण बीइंग (होना) हैं, बिकमिंग (बनना) नहीं। बीइंग इज रियलटी, बिकमिंग इज फैलेसी। 'होना' सत्य है, 'बनना' भ्रम। व्याख्या भी बिकमिंग की होती है, बीइंग तो व्यवहार है। बीइंग तो स्वभाव है, सहज घटता है। बीइंग विज्ञान है।  व्याख्याएं अप्राप्य की होती हैं, कृष्ण तो सर्वव्याप्त हैं। उनकी क्या व्याख्या करना। लीलाओं से कृष्ण नहीं हैं, बल्कि कृष्ण हैं इसलिए लीलाएं होती रहेंगी।  कृष्ण का समत्व-बोध स्व'स्वरूप'संधान है।  कृष्ण को चुनना सम्पूर्ण का चयन है। इसमें रास, रंग और रण सब शामिल है। सुविधानुसार किसी एक का चयन नहीं। कृष्ण में कुछ छोड़ने लायक है ही नहीं, परिष्करण की शिखरतम प्राप्ति... जहां अनावश्यक कुछ नहीं रह जाता।  कृष्ण कोई रूप नहीं, प्रवाह हैं। दिने दिने नवं नवं... हर बार का नयापन अनछुआ.... अनाघ्रातमं पुष्पं..! कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।